दो साल की 'पीहू' की हरकतों को देख तनाव में बीतेंगे दो घंटे, हॉरर के शौकीन जरूर देखें

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निर्माताः शिल्पा जिंदल, सिद्धार्थ रॉय कपूर, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशकः विनोद कापड़ी
सितारेः मायरा विश्वकर्मा, प्रेरणा विश्वकर्मा
रेटिंग : 3.4/5

पीहू खत्म होने के बाद पहला विचार आता है, अच्छा हुआ फिल्म खत्म हो गई। फिल्म देखते हुए दिमाग में एक तनाव तारी रहता है कि घर में अकेली यहां-वहां घूम रही दो साल की बच्ची को कुछ हो न जाए। रात को ही उसके जन्मदिन की पार्टी हुई। पसारा यहां-वहां फैला है। मां जाग नहीं रही। उसके हाथों से गिरी दवाई की शीशी बहुत कुछ कह रह रही है।

बच्ची कुछ समझनहीं पा रही। टीवी चल रहा है, रात के बिखरे गुब्बारे समय-समय पर फूट रहे हैं, बच्ची को भूख लगी है वह क्या करे? डुप्लेक्स फ्लैट है, वह सीढ़ियों से चढ़-उतर रही है और लगातार उसके गिर कर चोटिल होने का खतरा है।मां के मोबाइल फोन की घंटी रह-रह कर बज रही है और वह ऊपर रैक में रखा है, बच्ची उसे भी जोखिम में पड़ते हुए उतारती है परंतु क्या बात करे? उधर से बच्ची का पिता बोले जा रहा है पीहू मां को फोन दो और एक ही जवाब मिल रहा है, ‘मम्मा निन्ना’

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बच्ची फ्रिज खोल कर उस में बैठकर बंद हो जाती है। वह ओवन चलाती है और रोटी जला बैठती है। गैस जलाती है और फिर रोटी राख में बदल जाती है। बर्नर ऑन ही हैं। नल चल रहा है, पानी घर के फर्श पर फैलता जा रहा है। दूधवाला-कूड़ेवाला आता है परंतु दरवाजा नहीं खुलता। गीजर ओवर हीट होकर फट जाता है। पिता बाहर जाने से पहले इस्तरी का बटन ऑन छोड़ गया था। प्रेस से धुआं उठ रहा है। किसी भी पल कोई बड़ा हादसा हो सकता है। निर्देशक विनोद कापड़ी फिल्म को निरंतर हादसे के किनारे पर रखते हैं। यह तनाव/पैदा करता है। अनहोनी की आशंका फिल्म के मूल में है लेकिन यह बहुत कुछ कहती है।

फिल्म पीहू


खास तौर पर उन नवदंपतियों से जो मॉडर्न जीवन की चाह रखते हुए माता-पिता बने हैं। फिल्म एंटरटेनमेंट के लिए नहीं देख सकते परंतु इतना जरूर है कि पीहू सिनेमा की ताकत का एहसास कराती है। वह फिर स्थापित करती है कि सिनेमा कितना सशक्त माध्यम है। फिल्म की स्क्रिप्ट के लिए विशेष जगह नहीं है क्योंकि दो वर्ष की बच्ची से अपनी मर्जी का अभिनय करना संभवन नहीं।

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लेकिन इसके घटनाक्रम रोचक और बांधते हैं। कापड़ी ने फोन पर पिता के एक-तरफा संवादों के द्वारा इसे कहानी का रूप देने की कोशिश की है। मूलतः फिल्म आगाह करती है कि नन्हें बच्चे अगर घर पर अकेले हों, कोई बड़ा नजर रखने वाला न हो तो कैसे-कैसे खतरे हैं। निर्देशक ने शुरुआत में बच्ची के कुछ-कुछ बात कहने वाले दृश्यों को या तो उसकी पीठ की तरफ से शूट किया या दूर से। यह बात फिल्म से जुड़ने में देरी का कारण बनती है। पीहू को अधिक बेहतर ढंग से शूट किया जा सकता था। पीहू पूरी तरह से प्रयोगधर्मी सिनेमा है।नई कहानी है नए ढंग से सोचा गया है।









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