Film Review: बनारस की घटती चमक से रूबरू करवाता है 'मोहल्ला अस्सी', रिव्यू पढ़कर ही घुसना

Mohalla Assi

-निर्माताः विनय तिवारी
-निर्देशकः डॉ.चंद्रप्रकाश त्रिवेदी
-सितारेः सनी देओल, साक्षी तंवर, रवि किशन, राजेंद्र गुप्ता, सौरभ शुक्ला
-रेटिंग :2.4/5

दूरदर्शन के दिनों के धारावाहिक चाणक्य और फिल्म पिंजर के लिए पहचाने जाने वाले निर्देशक डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी  की फिल्म मोहल्ला अस्सी अगर समय से आ जाती तो बेहतर होता। लेकिन सितारे-निर्माता-निर्देशक की अनबन, फिल्म के विरुद्ध मुकदमे, ऑन लाइन लीक होने और सेंसर में उलझने से इसे बहुत नुकसान हुआ।

फिल्म हिंदी के चर्चित उपन्यासकार काशीनाथ सिंह के प्रसिद्ध उपन्यास काशी का अस्सी का सिनेमाई-रूपांतरण है। इसकी खूबी ऐक्टरों का मंजा हुआ अभिनय है परंतु कमजोर पटकथा से यह फिल्म झूल जाती है। पहला हिस्सा जहां बातों को खींचता है, वहीं दूसरे में घटनाएं और किरदार लड़खड़ा जाते हैं। क्लाइमेक्स हड़बड़ी में सिमटता है। कहानी बनारस की घटती हुई चमक और कारोबार में बदलती आध्यात्मिक पहचान को रेखांकित करती है।

यह बदलाव स्थानीय लोगों के लिए चिंता का सबब है परंतु मुश्किल यह भी है समय के साथ देश में सांस्कृतिक पहचान और इसके चिह्न इतनी तेजी से अलग-अलग स्तरों पर बदल रहे हैं कि उनसे लड़ना किसी के लिए संभव नहीं दिख रहा। परिवर्तन ही शाश्वत है, यह पंक्ति हमारे समय को सबसे गहराई से रेखांकित करती है।

फिल्म के केंद्र में संस्कृत पढ़ाने वाले पांडे जी (सनी देओल) और उनकी पत्नी (साक्षी तंवर) हैं, जो बदलते समय के बीच भी पुरानी आस्थाओं के साथ जी रहे हैं। मिनरल वाटर के दौर में गंगा के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा कैसे बनी रहेगी, जबकि खुद भगवान शिव पांडे जी को जगाने आएंगे! रवि किशन, सौरभ शुक्ला और राजेंद्र गुप्ता के किरदार और संवाद बदलते हुए बनारस और वहां की परंपरा से जुड़ी बातें सामने रखते हैं।

मोहल्ला अस्सी की शूटिंग के दौरान सनी देओल

जबकि जाते हुए 1980 के दशक और आते हुए 1990 के दशक के बीच राम मंदिर आंदोलन बनारस के जन-जीवन को प्रभावित करता है। फिल्म डेढ़ घंटे में काफी कुछ कहती है परंतु उपन्यास से पीछे रह जाती है। वैसे सुखद यह है कि बनारसी जीवन का जो रस काशी का अस्सी में है, उसका तत्व यहां बरकरार रहता है।

पिछले दिनों साहित्यिक कथा पर पटाखा बनाने वाले निर्माता-निर्देशक विशाल भारद्वाज की तरह डॉ.द्विवेदी कहानी की आत्मा से खिलवाड़ नहीं करते। उसे बनाए रखते हैं। फिल्म में सनी देओल अपने ढाई किलो के हाथ वाली इमेज के विपरीत पंडित और संस्कृत विद्वान की भूमिका में जमे हैं। फैन्स अगर सनी को अलग भूमिका में देखना चाहें तो यह फिल्म उनके लिए है।











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